Monday 6 November 2017

हायकमान संस्कृति लोकतंत्र के लिए खतरा

आये दिन मैच होने से क्रिकेट खेल की बजाय कारोबार में बदल गया है वही स्थिति अपने देश में लगातार चुनाव होने से राजनीति की हो गई है। पूरे पांच साल देश में चुनावी माहौल के रहने से राजनीति भी अब सिद्धान्तों और आदर्शों की लक्ष्मण रेखा लांघकर क्रिकेट की तरह जीत-हार के रोमांच से भर उठी है। लोकतंत्र में चुनाव अवसर होते हैं अपनी नीतियों से जनता को अवगत कराने के किन्तु आज की राजनीति सत्ता प्राप्ति पर केन्द्रित होने से अपना शास्त्रीय रूप छोड़कर येन-केन प्रकारेण चुनाव जीतने तक सीमित हो गई है। यही वजह है कि जिस तरह सीमित ओवरों के मैच में बल्लेबाज और गेंदबाज का लक्ष्य खेल के कलात्मक प्रदर्शन की बजाय रन बनाना या विकेट लेना हो गया है ठीक वैसे ही सियासत के खिलाड़ी की सफलता का मापदंड चुनाव जीतने या जिताने की उसकी क्षमता बन गई है। यही कारण है कि चुनाव चाहे लोकसभा का हो या नगर पालिका का, उसमें राष्ट्रीय मुद्दों की चर्चा होने लगती  है। मौजूदा संदर्भ गुजरात और हिमाचल में विधानसभा चुनाव के लिये हो रहे प्रचार का है। हाँलाकि दोनों राज्यों में स्थानीय मुद्दों पर भी सत्ता और विपक्ष के बीच जोरदार बहस चल रही है परन्तु केन्द्र बिंदु में राष्ट्रीय मुद्दे ही छाये हुए हैं। गुजरात और हिमाचल दोनों में भाजपा और काँग्रेस के बीच ही मुकाबला है लेकिन दोनों में राज्य स्तरीय नेतृत्व की बजाय दोनों दलों का राष्ट्रीय नेतृत्व हावी है। एक जमाना था जब हर प्रांत में स्थानीय नेताओं का प्रभाव हुआ करता था किन्तु धीरे-धीरे केन्द्रीय नेतृत्व ने प्रांत स्तर के नेताओं को दोयम दर्जे का बनाकर रख दिया। कांग्रेस में इंदिरा गांधी के जमाने से नेतृत्व का केन्द्रीयकरण शुरू हुआ था जबकि भाजपा में नरेन्द्र मोदी का दौर शुरू होते ही सब कुछ हायकमान की मर्जी पर सिमट गया। यही वजह है कि गुजरात और हिमाचल दोनों की भौगोलिक राजनीतिक तथा आर्थिक परिस्थितियां अलग-अलग होने के बाद भी सबसे बड़े प्रचारक नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी ही बने हुए हैं। मुद्दे भी वही हैं जिनकी चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर लगभग रोजाना होती है। गुजरात में पाटीदार आरक्षण एक बड़ा मुद्दा है किन्तु अब तक भाजपा और कांग्रेस इस बारे में कुछ भी कह पाने की हिम्मत नहीं बटोर पा रहीं। यही स्थिति हिमाचल की है जहां राज्य की समस्याओं पर राष्ट्रीय विमर्श के विषय हावी हैं। संघीय ढांचे की चिंता तो सभी प्रमुख राजनीतिक दल करते हैं किन्तु राज्यों के नेतृत्व को कमजोर करने से स्थानीय नेतृत्व कमजोर होता जा रहा है। क्षेत्रीय दलों को छोड़ दें तो अब राष्ट्रीय पार्टियों के प्रभुत्व वाले राज्यों के नेता भले ही वे मुख्यमंत्री क्यों न हों, मिट्टी के माधव बनकर रह गए हैं। लोकतंत्र की दुहाई देने वाले दलों में आंतरिक लोकतंत्र खत्म होना अच्छा लक्षण नहीं है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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