सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ द्वारा सरकारी नौकरियों में पदोन्नति को भी आरक्षण के दायरे में रखे जाने को लेकर पिछले निर्णयों के विरुद्ध लगी याचिकाओं को संविधान पीठ के विचार हेतु भेजे जाने के फैसले पर उत्पन्न कानूनी विवाद से एक बात तो साफ हो गई कि न्यायपालिका भी राजनीतिक बिरादरी की तरह इस सम्वेदनशील विषय पर कोई निर्णय लेने में हिचकिचाती है। 11 साल पहले पांच न्यायाधीशों की पीठ ने पदोन्नति में आरक्षण को वाजिब बताने के बावजूद ये हिदायत दी थी कि ऐसा करने से पहले सरकार को अपर्याप्त प्रतिनिधित्व और पिछड़ेपन के समुचित आंकड़े जुटाने होंगे।कुछ और निर्णय भी आए। इनकी वजह से राज्यों की पदोन्नति में आरक्षण की प्रक्रिया ठंडी पड़ गई। गत दिवस दो न्यायाधीशों की पीठ द्वारा उक्त प्रकरण पर एक पुनर्विचार याचिका को सीधे संविधान पीठ को भेजे जाने पर तय किया गया कि खण्डपीठ के निर्णय पर तीन न्यायाधीश ये व्यवस्था देंगे कि क्या खण्डपीठ को ऐसा करने का अधिकार था? उसी के बाद आगे की प्रक्रिया तय होगी। उधर दूसरी तरफ वोट बैंक की लालच में केंद्र और राज्य दोनों की सरकारें पदोन्नति में अजा/अजजा को आरक्षण दिए जाने की पुरजोर वकालत कर रही हैं। वैसे व्यवहारिक तौर पर देखें तो ये मसला वैधानिक कम ,राजनीतिक ज्यादा हो गया है। आरक्षण का आधार आर्थिक की बजाय जाति को बनाए रखने का प्रश्न देश की राजनीति का वह कड़वा सच है जिसने समाज के बीच जातिगत भेदभाव की खाई को और चौड़ा कर दिया है। इसका सबसे अच्छा और ताज़ा उदाहरण गुजरात है जहां सारे मुद्दों को एक तरफ धकेलते हुए पाटीदार आरक्षण की मांग पूरे चुनाव पर हावी हो गई। अन्य राज्य भी ऐसे ही दबावों को झेलने मजबूर हैं। दुर्भाग्य से अपने देश का लोकतंत्र दिमाग की बजाय सिर गिनने पर सिमट गया। इसके चलते योग्यता पर अयोग्यता को हावी होने का मौका मिलने लगा जिसका दुष्परिणाम व्यवस्था के चरमराने के रूप में सामने आता जा रहा है।आरक्षण को एक सामाजिक अनिवार्यता के रूप में संविधान निर्माताओं ने स्वीकार किया था। पिछड़े और वंचित वर्गों को मुख्यधारा में लाना देश के सर्वतोमुखी विकास के लिए जरूरी था। यही वजह रही कि प्रारम्भिक तौर पर किसी ने इसका विरोध नहीं किया किन्तु धीरे-धीरे अजा/अजजा से बढ़ते-बढ़ते बात ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) तक आ पहुंची और अब पिछड़ी कही जाने वाले वे जातियाँ भी अपने वोट की कीमत मांगने लामबंद हो रही हैं जिनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर है। सही बात ये है कि सरकारी नौकरी में मिल रही सुविधाओं के अलावा जो सुरक्षा जीवनपर्यन्त मिलती है उसके आकर्षण ने परंपरागत रूप से स्वरोजगार सम्पन्न जातियों में भी आरक्षण की बैसाखी का सहारा लेने की ललक पैदा कर दी लेकिन असली विवाद तब बढ़ा जब पदोन्नति में भी आरक्षण लागू किया गया जो सीधे - सीधे प्रतिभा और योग्यता की कीमत पर होता है। इसे लेकर ही न्यायपालिका ने जब अड़ंगा लगाते हुए कहा कि ऐसा करते समय सरकार को ये देखना होगा कि सम्बन्धित वर्ग का प्रतिनिधित्व सम्बन्धित सेवा में अपर्याप्त है और उसके पिछड़ेपन का आंकड़ा क्या है? निश्चित रूप से यह एक रचनात्मक समाधान होता लेकिन फिर वही वोट बैंक की सियासत आढ़े आ गई। प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री और अन्य नेता तक आरक्षण के लिए कुछ भी कर गुजरने की हुंकार भरते रहते हैं। सवर्ण जातियों के बीच सरकारी नौकरियों में मिलने वाले आरक्षण को लेकर जितना गुस्सा या असन्तोष है उससे अधिक है पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था को लेकर। तुलनात्मक दृष्टि से कम योग्य व्यक्ति का नौकरी में चयन एक सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु जरूरी लग सकता है किंतु पदोन्नति तो कार्यकुशलता और क्षमता के प्रदर्शन का पुरस्कार होना चाहिये। इसीलिए जब काबलियत की उपेक्षा कर आरक्षण के जरिये पदोन्नति दी जाती है तो उससे उत्पन्न कुंठा अंतत: विद्वेष को जन्म देती है जिसका अंतिम परिणाम व्यक्ति की कार्यकुशलता में ठहराव के तौर पर देखने मिल रहा है। सरकारी दफ्तरों में कार्यरत स्टाफ में जो कामचोरी नजर आती है उसका एक कारण पदोन्नति में आरक्षण भी कहा जा सकता है। प्रश्न ये उठता है कि न्यायपालिका ऐसे विषयों को सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर क्यों नहीं निबटाती? 2006 में पांच न्यायाधीशों की पीठ के निर्णय को लेकर अब तक स्थिति स्पष्ट नहीं होना भी शोचनीय है। सबसे ज्यादा जरूरी है राजनीतिक दलों की सोच में बदलाव की जो जाति भेद मिटाने की बजाय उसे बढ़ाने में लगे रहते हैं। आरक्षण का समर्थन और विरोध दोनों ऐसे मुद्दे हैं जिन पर वैचारिक मतभेद से बढ़कर जातिगत संघर्ष की स्थिति तक बन रही है पाटीदार,मराठा,गुर्जर,जाट जैसी जातियों को आरक्षण मिलने के बाद क्या गारंटी है कि ये सिलसिला रुक जाएगा। इसी तरह पदोन्नति में आरक्षण के चलते सरकारी क्षेत्र में सेवा और कार्य का स्तर जिस तरह गिर रहा है वह भी गम्भीर चिंतन का विषय है। यदा कदा निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की जो मांग उठा करती है वह भयावह भविष्य का संकेत है। दो न्यायाधीशों द्वारा मामला पांच न्यायाधीशों की पीठ के विचारार्थ भेजे जाने पर अधिकार और औचित्य का सवाल खड़े हो जाने से असल मुद्दे पर दूसरा विवाद चढ़ बैठा। ये तो जगजाहिर है कि राजनेता चाहे किसी भी पार्टी के क्यों न हों आरक्षण का खुलकर विरोध नहीं कर सकते क्योंकि सवाल घूम फिरकर वही वोट का आ जाता है। घटती सरकारी नौकरियों के कारण सार्वजनिक क्षेत्र में वैसे ही रोजगार दिन ब दिन कम होते जा रहे हैं। ऊपर से आरक्षण को लेकर पैदा हुई अप्रिय स्थितियों से समाज में विघटन के हालात बनने लगे हैं। आरक्षण को आवश्यक और औचित्यपूर्ण मानने वाले भी दबी जुबान ही सही किन्तु ये स्वीकार करने में नहीं हिचकिचाते कि पदोन्नति करते समय जाति की अपेक्षा योग्यता, क्षमता और कार्यकुशलता मापदण्ड होना चाहिए।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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