Thursday 27 July 2017

नाम को लेकर व्यर्थ का विवाद

देश के 14वें राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने गत दिवस शपथ लेकर अपना पदभार ग्रहण कर लिया। अपने पहले भाषण में उन्होंने सहजता के साथ जिस आत्मविश्वास का प्रदर्शन किया उससे उन लोगों को अचरज हुआ होगा जो ये मान रहे थे कि निवर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का उत्तराधिकारी उनके स्तर से बहुत नीचे है। श्री कोविंद ने अपने लिखित उद्बोधन में बेहद विस्तार से आधुनिक भारत के सामाजिक और आर्थिक स्वरूप को स्पष्ट किया वहीं सहमति और असहमति के सामंजस्य पर आधारित स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपराओं का भी उल्लेख करना वे नहीं भूले। महामहिम ने राष्ट्रनिर्माता के तौर पर देश के हर नागरिक की भूमिका का जिस तरह उल्लेख किया उससे उनकी पैनी नजर और गहरी सोच की बानगी देश और दुनिया को मिली। श्री कोविंद ने अपने उद्बोधन में पूर्ववर्ती राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद, डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, एपीजे कलाम के साथ प्रणब मुखर्जी के कदमों पर चलने का इरादा जताया वहीं महात्मा गांधी के साथ सरदार पटैल और डा. भीमराव आंबेडकर का भी ससम्मान स्मरण किया लेकिन भाजपा के आराध्य पुरुष पं. दीनदयाल उपाध्याय का नाम लेकर उन्होंने विपक्ष विशेष रूप से कांग्रेस को कुनमुनाने का अवसर दे दिया। गुलाम नबी आजाद ने खुलकर और अन्य ने दबी जुबान पं. जवाहर लाल नेहरू की उपेक्षा का मुद्दा छेड़ दिया। सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने ये सवाल भी उठाया कि नये महामहिम ने केवल चार पूर्व राष्ट्रपतियों का नाम ही क्यों लिया शेष 9 का क्यों नहीं? एक सवाल ये भी उठा कि पं. दीनदयाल उपाध्याय का ऐसा कौन सा योगदान रहा जिसके लिये उनके नाम का उल्लेख इतने महत्वपूर्ण अवसर पर नये राष्ट्रपति ने किया? सवाल और भी उठे और उठते रहेंगे किन्तु किसी का नाम लेना या छोड़ देना ऐसा विषय नहीं है जिस पर नाक सिकोड़ी जाए। जिन चार पूर्व महामहियों का बतौर आदर्श श्री कोविंद ने अपने भाषण का जिक्र किया उनकी पात्रता को लेकर कोई विवाद नहीं हो सकता। रही बात शेष को भुला देने की तो निश्चित रूप से पूरे 13 नाम गिनाने से उन विलक्षण विभूतियों के साथ अन्याय होता जिन्होंने बतौर राष्ट्रपति अपने व्यक्तित्व ही नहीं कृतित्व की भी छाप छोड़ी और यदि वे राष्ट्रपति न बने होते तब भी उनका स्मरण ससम्मान ही किया जाता। फखरूद्दीन अली अहमद, ज्ञानी जैल सिंह और प्रतिभा पाटिल का जिक्र राजेन्द्र बाबू और सर्वपल्ली के समकक्ष करना कहीं से भी उचित नहीं होता और कलाम साहब तो पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें जनता के राष्ट्रपति के तौर पर प्रतिष्ठा और अपार लोकप्रियता मिली। रही बात प्रणब मुखर्जी की तो उन्होंने बीते तीन वर्ष में विरोधी विचारधारा की सरकार के साथ जिस संजीदगी एवं शालीनता के साथ अपने पद की गरिमा के अनुरूप सामंजस्य बनाया उसके लिये उनकी सर्वत्र प्रशंसा हुई। भले ही कांग्रेस को ये रास नहीं आया हो किन्तु प्रणब बाबू ने विदाई समारोहों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जिस अंदाज में तारीफ की उससे उनके व्यक्तित्व में निहित बड़प्पन उजागर हुआ है। जहां तक बात पं. नेहरू के नाम का उल्लेख नहीं किये जाने की है तो उस पर बवाल मचाना बेमानी है। श्री कोविंद ने जिन लोगों का उल्लेख किया वे राजनीति में रहते हुए भी उससे ऊपर उठ चुके हैं। गांधी जी, डा. आंबेडकर और दीनदयाल जी ने राजनीतिक चिंतन से ऊपर उठकर समाज को जो दिशा दी वह असाधारण थी। सरदार पटैल का कारनामा तो किसी प्रशंसा का मोहताज नहीं है। इन विभूतियों के विरोधी भी ये मानते हैं कि उन्होंने नि:स्वार्थ भाव से देश और समाज की सेवा की। जहां तक बात पं. नेहरू का नाम न लेने की है तो श्री कोविंद ने जिस पार्टी से वे जुड़े रहे उसके पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का नाम भी नहीं लिया। यदि वे नेहरू जी का नाम लेते तो सवाल उठता कि शास्त्री जी को क्यों भूले। और उनका भी उल्लेख करते तब इंदिरा जी को लेकर हल्ला मचता। इससे भी ऊपर उठकर देखें तो ये व्यक्तिगत आस्था का भी प्रश्न है। कोई ये भी कह सकता है कि पहले के राष्ट्रपतियों ने क्या अपने पूर्ववर्ती सभी महामहिमों का नाम लिया था ?  या प्रधानमंत्री बनने के बाद किसी ने अब तक के सारे प्रधानमंत्रियों के योगदान के प्रति सम्मान और कृतज्ञता व्यक्त की? वर्तमान सरकार पर पं. नेहरू की विरासत की उपेक्षा का आरोप यदाकदा लगता है। इसमें गलत कुछ भी नहीं है। लेकिन नेहरू जी की विरासत से चिपके लोगों को ये भी बताना चाहिए कि देश के निर्माण में अपना योगदान देने वाले अन्य महानुभावों को भी उनके कृतित्व के अनुरूप सम्मान या महत्व मिला ? पं. नेहरू और उनकी सुपुत्री इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए ही स्वयं को भारत रत्न से विभूषित करवा दिया। यदि उस दौर में वैसी ही दरियादिली पक्ष-विपक्ष के अन्य नेताओं तथा गैर राजनीतिक शख्सियतों को लेकर दिखाई जाती तब इस तरह के विवाद नहीं उठते। पीढिय़ां बदलने के साथ काफी कुछ बदल जाता है। पं. नेहरू के प्रति नई उम्र के कांग्रेसजन भी उतनी श्रद्धा नहीं रखते तो उन्हें नेहरू विरोधी मान लेना गलत होगा। बेहतर होता गुलाम नबी आजाद एवं अन्य लोग नये राष्ट्रपति के उद्बोधन में उल्लिखित नामों को लेकर बखेड़ा खड़ा नहीं करते। पं. नेहरू के योगदान की प्रशंसा जहां होनी चाहिए, वहीं हो तो ठीक है। राष्ट्रपति का शपथ ग्रहण एक विशिष्ट अवसर होता है जिसे दलगत राजनीति से परे रखा जाना चाहिए और फिर शेक्सपियर कह भी गए हैं नाम में क्या रखा है।
-रवींद्र वाजपेयी

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