Thursday 27 July 2017

बिहार : न अप्रत्याशित न ही अनपेक्षित

बिहार की राजनीति का जो चरमोत्कर्ष कल शाम से रात तक दिखाई दिया वह न तो अप्रत्याशित था और न ही अनपेक्षित। जो लोग सियासत की तासीर से वाकिफ हैं वे जानते होंगे कि सत्ता की जितनी जरूरत लालू प्रसाद यादव को थी उतनी ही चाहत नीतिश के मन भी सदैव रही है। फर्क केवल इतना है कि लालू के तरीकों में फूहड़पन ज्यादा है वहीं नीतिश करीने से कोई भी काम करने में यकीन रखते हैं। यही वजह है कि सत्ता के खेल में अपने प्रतिद्वंदी को शह और मात देने में वे हमेशा सफल हो जाते हैं। जिस दौर में भाजपा सत्ता की तरफ बढ़ रही थी तब राम मंदिर का समर्थन किये बिना भी नीतिश ने अटल बिहारी वाजपेयी के साथ खड़े होकर समाजवादी कुनबे को ठेंगा दिखा दिया। लालू और रामविलास पासवान सरीखे ताकतवर नेताओं को बिहार की सियासत में पटकनी देने का कारनामा उन्होंने अपनी छवि और भाजपा के सहयोग से ही किया था। अटल जी के अस्वस्थ होने के बाद जब 2009 में लालकृष्ण आडवाणी रूपी दाँव भी विफल हो गया तो नीतिश की महत्वाकांक्षाएं परवान चढ़ीं और प्रधानमंत्री पद उन्हें सपने में नजर आने लगा। वाजपेयी जी की तरह साफ-सुथरी छवि, सौम्यता और सभी वर्गों में स्वीकार्यता के बल पर नीतिश सर्वोच्च राजनीतिक पद की तरफ कदम बढ़ाने लगे थे किन्तु संघ परिवार ने बीच में नरेन्द्र मोदी को उतारकर सब गुड़-गोबर कर दिया। उसके बाद के चार साल  नीतिश ने जितनी कटुता भाजपा और संघ परिवार के विरुद्ध दिखाई वह रिकॉर्ड है किन्तु ये उनका राजनीतिक कौशल ही है कि वे भाजपा की अंतरगता के काल में भी सुशासन के प्रतीक बने रहे और भ्रष्टाचार का दूसरा नाम बन चुके लालू की संगत में भी अपने दामन पर दाग लगने से बचे रहे। कल जो हुआ उसकी बुनियाद तो 20 माह पूर्व तभी रख दी गई थी जब लालू के दोनों बेटों को अपने मंत्रीमंडल में उन्हें न सिर्फ शामिल करना पड़ा वरन् तेजस्वी को उपमुख्यमंत्री  तथा तेजप्रताप को महत्वपूर्ण विभाग देना पड़ गया। अपनी पार्टी के विधायक नीतिश की जद(यू) से ज्यादा होने पर भी मुख्यमंत्री पद के लिये लालू ने विवाद नहीं किया किन्तु समानांतर सत्ता केन्द्र के रूप में वे और उनका परिवार कार्यरत हो उठे जिसके कारण सुशासन का मजाक उडऩे लगा। बिहार में बहार की जगह जंगलराज का पुनरागमन होने लगा। नीतिश चिंतित तो थे किन्तु भाजपा के साथ बढ़ चुकी तल्खी के कारण पीछे लौटने का रास्ता उन्हें नहीं सूझ रहा था। बिहार में मोदी लहर को सफलतापूर्वक रोक देने के कारण उन्हें नरेन्द्र मोदी का विकल्प माना जाने लगा था। विपक्षी एकता की इमारत नये सिरे से तैयार करने की कवायद भी शुरू हो गई लेकिन नीतिश को ये सब रास नहीं आया। वजह उनकी महत्वाकांक्षा के लिये कोई गुंजाइश नहीं होना थी। यही वजह रही कि वे उ.प्र. चुनाव में निर्विकार बने रहे। लेकिन जब भाजपा ने उ.प्र., उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में झंडा गाड़ दिया तब नीतिश कुमार को ये भरोसा हो गया कि विपक्ष में इतना दमखम नहीं रह गया कि 2019 में मोदी के प्रवाह को रोका जा सके। तभी से वे बहाने ढूंढ़ रहे थे। हॉलांकि नोटबंदी का समर्थन कर उन्होंने अपना इरादा जता दिया था परन्तु उ.प्र. के परिणाम ने उनके मन की रही सही हिचक दूर कर दी। जीएसटी और राष्ट्रपति चुनाव में बिना मांगे भाजपा को साथ देकर उन्होंने लालू से छुटकारे की भूमिका बनानी शुरू कर ही दी थी। चारा घोटाले का मामला फिर शुरू होने से बदली परिस्थितियां लालू के बेटों-बेटी के अवैध आर्थिक सामाज्य के खुलासे से और बदतर हो गईं। इसके पहले कि लालू की संगत का असर उनकी छवि पर पड़ता उन्होंने पैंतरा बदलते हुए महागठबंधन में दरार उत्पन्न करने का दुस्साहस कर डाला। नीतिश समझ गये थे कि भाजपा भी बिहार की सत्ता में लौटने के लिये एक पाँव पर खड़ी हो जाएगी। इसी लिये उन्होंने भ्रष्टाचार से समझौता नहीं करने की जिद पकड़ ली। यदि लालू अपने दोनों बेटों का स्तीफा दिलवा देते तब नीतिश की छवि भी सुरक्षित रहती और गठबंधन भी लेकिन यहीं लालू गच्चा खा गये। उन्हें लग रहा था कि भाजपा पर जहर बुझे तीर चलाने के बाद नीतिश शायद ही उसके साथ दोबारा रिश्ता जोड़ेंगे लेकिन वे ये भूल गये कि मोदी-शाह की जोड़ी अपनी प्रचलित कड़क छवि के विपरीत राजनीतिक सौदेबाजी में पूरी तरह व्यवसायिक सोच रखती है जिसमें हर सूरत में फायदे की गारंटी हो। उ.प्र. में ऐतिहासिक सफलता के बाद बिहार ही वह काँटा बचा था जो प्रधानमंत्री के पाँव में चुभ रहा था। भाजपा के रणनीतिकार भी मान रहे थे कि मुलायम सिंह के पराभव तथा मायावती के निरंतर अप्रासंगिक होते जाने के बाद भी नीतिश कुमार 2019 के अश्वमेध यज्ञ में बड़ी न सही छोटी बाधा तो बन ही सकते हैं। यही कारण रहा कि श्री मोदी ने हर उपयुक्त अवसर पर नीतिश की शान में कसीदे पढऩे शुरू कर दिये जिसका जवाब भी उम्मीद के मुताबिक मिला। विपक्षी गठबंधन जब-राष्ट्रपति चुनाव की मोर्चेबंदी हेतु बैठा तब नीतिश ने उसमें जाने की बजाय प्रधानमंत्री के साथ भोजन करने को प्राथमिकता दी। ये भी कह सकते हैं कि दोनों पक्ष मनभेद भुलाकर राजनीतिक पुनर्विवाह हेतु सहमत होने लगे थे। कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि लालू के परिवारजनों की अवैध कमाई और बेनामी संपत्तियों की पूरी जानकारी मय दस्तावेज नीतिश के जरिये ही सीबीआई तक पहुंची जिसके कारण वह इतनी तेजी से शिकंजा कसने में कामयाब हो गई। लालू को ये डर भी सताने लगा था कि सत्ता से हटने के बाद उनके परिवार का सुरक्षा कवच खत्म हो जाएगा तथा तेजस्वी सहित अन्य को सीबीआई सींखचों में डाल देगी। चारा घोटाले की तलवार सिर पर लटकने से वैसे भी वे परेशान थे। लेकिन उन्होंने ये नहीं सोचा था कि नीतिश इस तेजी से तख्ता पलट देंगे। कल रात के घटनाक्रम में नीतिश और भाजपा ने पहले से लिखी जा चुकी पटकथा के अनुसार ही काम किया। जब तक लालू एंड कंपनी संभल पाती तब तक तो भाजपा और जद (यू) की सरकार के शपथ ग्रहण की तैयारी कर ली गई। सुबह 11 बजे राज्यपाल से मिलकर सबसे बड़ा दल होने के नाते सरकार बनाने का अवसर मांगने की तेजस्वी की पहल रंग लाती इसके पूर्व ही 10 बजे नई सरकार की ताजपोशी हो गई। नीतिश से मिले झटके से भन्नाएं लालू ने खिसियाहट में उन्हें हत्या का आरोपी बताकर घेरने का जो प्रयास किया वह हवा में उड़कर रह गया जबकि नीतिश ने अब तक न किसी पर कोई आरोप लगाया न ही इस्तीफा मांगा। वे चाहते तो तेजस्वी को बर्खास्त कर नया मोर्चा खोल सकते थे किन्तु उन्होंने बहादुरी की बजाय होशियारी दिखाते हुए साबित कर दिया कि वे काजल की कोठरी से बिना दाग लगे निकलने की कला में कितने पारंगत हैं। 17 साल तक भाजपा के साथ रहने के बाद भी कोई उन्हें साम्प्रदायिक नहीं मानता। इसी तरह मंडलवादी कुनबे के होने पर भी नीतिश पर जातिवादी राजनीति का आरोप कभी नहीं लगा। और अब लालू के बेहद करीब रहने के बाद भी वे ईमानदारी का पुतला बने रहकर दूर निकल आए। यद्यपि नीतिश और भाजपा दोनों ने राजनीतिक अवसरवाद का सहारा खुलकर लिया है परन्तु मोदी और शाह के साथ अब नीतिश के भी जुड़ जाने से भाजपा अपराजेय होने की तरफ बढ़ रही है। शिवसेना जैसे सहयोगी भी इससे दहशत में आ गए हैं। इस नाटकबाजी में सबसे दयनीय हालत कांग्रेस की हो गई जो नीतिश कुमार की छवि से कोई लाभ उठा नहीं सकी लेकिन लालू के साथ जुड़ी तमाम बदनामियां उसे चाहे-अनचाहे ढोनी पड़ेंगी। भाजपा को बिहार के सत्ता परिवर्तन से क्या हासिल होगा ये अभी कह पाना कठिन है किन्तु उसे अछूत बनाने की एक बड़ी कोशिश जरूर विफल हो गई।
-रवीन्द्र वाजपेयी

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